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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
रातों की तन्हाई में यूँ सुनता हूँ तेरी आवाज़ें
जैसे दूर से कोई पुकारे देकर लम्बी आवाज़ें

सदियाँ बीतीं बृंदाबन में प्यार के नग़मे फूटे थे
आज भी दिल वाले सुनते हैं प्यार में डूबी आवाज़ें

इनका राज़ तो अब जंगल के फूल ही शायद समझेंगे
आज हवाओं में रकसां हैं तेरी मेरी आवाज़ें

लोग कहां से सुन लेते हैं, ऐशो-मुसर्रत के नग़मे
मैं तो अक्सर ही सुनता हूँ दर्द में डूबी आवाज़ें

इस मिट्टी में जज़्ब हुए हैं कैसे-कैसे चंद्र बदन
मेहर फ़िज़ा में डूब गयी हैं कैसी कैसी आवाज़ें।
</poem>
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