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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
हरेक गाम उसी को मैं हमसफ़र समझा
वो एम शख्स जो मुझको न उम्र भर समझा

कभी तो अपना भी घर ग़ैर का लगा लेकिन
हरेक दिल को कभी मैंने अपना घर समझा

कभी न आने दिया इनको सीप से बाहर
मेरी अना ने अश्क़ को गुहर समझा

रहे-हयात में चलता रहा हूँ तेज़ बहुत
हमेशा खुद को हवाओं के दोश पर समझा

ठहर गया था युंही धूप में शजर के तले
वो रास्ता था जिसे मैंने अपना घर समझा।

</poem>
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