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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
कुछ कहूँ उससे कुछ छुपा रक्खूं
बात कुछ इस तरह बढा रक्खूं

आगे-आगे वो चल रहा है मेरे
किस क़दर उससे फासला रक्खूं

जब नई राह उसने अपना ली
अब भी क्या उससे राब्ता रक्खूं

फल तो देखूं कई तरह के मगर
लब पे बस एक ज़ायका देखूं

जिनसे आये तेरे बदन की महक
उन हवाओं से राब्ता रक्खूं।

</poem>
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