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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
जा-ब-जा प्यास के सहरा में भटकता क्या है
बोल ऐ तिश्ना-लबी तेरा इरादा क्या है

ये बहाकर ही लिए जाता है हर मंज़र को
मुझसे क्या पूछते हो वक़्त का दरिया क्या है

आज इक बर्ग जो लहराता है सरमस्ती में
कल इसी शाख़ पे होगा, ये भरोसा क्या है

लोग आते हैं यहां, आके चले जाते हैं
हमसे पूछे कोई जीने का सलीक़ा क्या है

मैं तो इक पेड़ हूँ, गुमसुम-सा किनारे दरिया
क्या कहूँ आबे-रवां से मिरा रिश्ता क्या है

अजनबी चेहरे ही मिलते हैं जिधर भी जाएं
मेहर इस शहर के माहौल में अपना क्या है।


</poem>
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