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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
इतना बिगड़ा तो नहीं यारो मुक़द्दर मेरा
किसको मालूम, हो कल आज से बेहतर मेरा

मैं फ़क़त ख्वाहिशे-परवाज़ से उड़ सकता हूँ
वक़्त ने नोच लिया चाहे हर इक पर मेरा

मैं उसी शहर का वासी हूँ जहां रोज़ मुझे
लोग ये पूछते हैं कैसे जला घर मेरा

मुझको हालात से शिकवा न गिले यारों से
कोई शय रोज़ जला देती है अंदर मेरा

नाव जब उसने डुबो दी मेरी साहिल के क़रीब
अब बिगड़ेगा भी क्या और समंदर मेरा।

</poem>
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