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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
मेरी आंखों में कभी अश्क़ जो भर आते हैं
अनगिनत राज़ मेरे दिल से उठा लाते हैं

अक़्ल आलाम के सहराओं में यूँ फिरती है
जैसे राही किसी मंज़िल से भटक जाते हैं

एक हेजान-सा उठता है मिरे सीने में
जब भी उजड़े हुए माज़ी के ख़याल आते हैं

जो तिरी राहगुज़र पर मेरे पांवों में चुभे
अब वही ख़ार मेरे ज़ख़्म को सहलाते हैं

और पड़ जाती है अहसास के चेहरे पे ख़राश
ज़ेहन के तार से जब हादसे टकराते हैं

क़ैद में भी है तसव्वुर मिरा आज़ाद ए मेहर
आशियाने मुझे हर सिम्त नज़र आते हैं।
</poem>
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