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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
ख़तर-ए-बर्के-तपां गर नहीं काशानों में
ख़ाक लुत्फ आयेगा जीने का गुलिस्तानों में

कितनी बेरंग कहानी थी तिरी मेरे बग़ैर
मैंने ही रंग भरा है तेरे अफसानों में

उनको साहिल का सुकूं कैसे मुआफ़क आये
वो जो हर दौर में पलते रहे तूफानों में

ये तो सहरा-ए-जुनूँ है ये तो है क़ैस का दश्त
अक़्ल क्या ढूंढती फिरती है बियाबानों में

अब किसी में नज़र आता नहीं वो जज़्ब-ए-इश्क़
अब कोई क़ैस नहीं है तेरे दीवानों में

मेहर इस दौर में अपनों ने तो दिल तोड़ दिया
लुत्फ आने लगा है बैठ के बेगानों में।

</poem>
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