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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
हैं अभी कुछ इधर उधर पत्ते
झड़ गये वरना बेश्तर पत्ते

दश्त में ये हवा चली कैसी
क्यों भटकते हैं दर-ब-दर पत्ते

शिद्दते-ख्वाहिशे-नमू देखो
हो गये पेड़ सर-ब-सर पत्ते

मैं हवाओं के साथ चलता हूँ
और हैं मेरे हमसफ़र पत्ते

अब खिज़ां की हंसी उड़ाते हैं
पेड़ पर झूम झूम कर पत्ते

मेहर बनबासियों को क्या सूझी
आंगनों में गये बिख़र पत्ते।
</poem>
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