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<poem>
आँधियों की ज़द में जितने भी थे घर जाते रहे
वो दरीचे वो छतें दीवारो-दर जाते रहे

कैसे कैसे लोग थे अपने सफ़र में साथ कल
सानिहा कैसा हुआ ये बेश्तर जाते रहे

एक मैं था रास्ता अपना बनाता ही गया
लोग अक्सर थी जहां तक रहगुज़र जाते रहे

रात भर जिनकी जिला से तीरगी डरती रही
वो दिये चुपचाप ही वक़्ते-सहर जाते रहे

एक तूफ़ानी हवा ही ले उड़ी उनका वजूद
नाज़ था रिफअत पे जिनको वो शजर जाते रहे।



</poem>
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