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<poem>
कहाँ कोई हिंदू मुसलमां बुरा है
जो नफ़रत सिखाए वो इंसां बुरा है

सियासत में हरगिज़ न इन को घसीटो
न गीता बुरी है न कुर्आं बुरा है

लहू जो बहाता है निर्दोष जन का
यकीनन अधर्मी वो शैतां बुरा है

उजाड़े नशेमन परिंदों का नाहक
उखाड़े शजर जो वो तूफां बुरा है

गलत या सही जैसे-तैसे हमारे
खजाने भरे हों ये अरमां बुरा है

हुनर सीख लो मुस्कुराने का ग़म में
हमेशा ही रहना परेशां बुरा है

सफर ज़िंदगी का है ‘अज्ञात' छोटा
जुटाना बहुत सारा सामां बुरा है
</poem>
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