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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
जो सर झुका के हाथ कभी जोड़ता नहीं
वो जानता अदब का ज़रा क़ायदा नहीं

हर शख़्स का पता हुआ है आज डॉट कॉम
क़ासिद गलीगली में यहाँ घूमता नहीं

है कामयाब शख़्स वही दोस्तो यहाँ
सच्चाई की डगर जो कभी छोड़ता नहीं

इंसान उस को दोस्तो कैसे कहें भला
जो दूसरों के हित में ज़रा सोचता नहीं

अफसोस की है बात बिना गर्ज़ के यहाँ
रखता किसी से कोई ज़रा वास्ता नहीं

मुश्किल ज़रूर पेश उसे आएगी यहाँ
सांचे में ख़़ुद को वक़्त के जो ढालता नहीं

‘अज्ञात' ख़ुद तलाशता है अपना रास्ता
वो दूसरों के नक़्शेक़दम ढूंड़ता नहीं
</poem>
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