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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
जिस शख्स के भी हाथ में है आइना मिला
ख़ुद को उसी में देख के वो चौंकता मिला

सुनते हैं इक शरारा मिरे इंतिजार में
मु-त से क़ाफ़िलों की तरफ ताकता मिला

इस ज़िंदगी की दौड़ में खुद से ही बेखबर
हर शख़्स कोई ख़्वाब नया देखता मिला

जब भी बढ़ाए मैंने क़दम मंज़िलों की ओर
मुझ को क़दम कदम पे नया हादसा मिला

जब नुक़्तएनज़र को ही मैंने बदल लिया
अपना ही दोस्त मुझ को बड़ा बेवफ़ा मिला
</poem>
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