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<poem>
सद्मात हिज्रे यार के जब जब मचल गए
आँखों से अपने आप ही आँसू निकल गए

मुम्किन नहीं था वक़्त की जुल्फें संवारना
तक़्दीर की बिसात के पासे बदल गए

क्या ख़ैरख़्वाह आप से बेहतर भी है कोई
सब हादसात आप की ठोकर से टल गए

चूमा जो हाथ आप ने शफ़कत से एक दिन
हम भी किसी फकीर की सूरत बहल गए

पहुँचे नहीं कदम कभी अपने मकाम पर
मंज़िल बदल गई कभी रस्ते बदल गए

शक ओ शुबा के नाम पे कैदी हैं बेगुनाह
जितने भी गुनहगार थे बच कर निकल गए

ख़ुद को तपा के इल्म की भट्टी में कर खरा
बाज़ार में तो कांसे के सिक्के भी चल गए
</poem>
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