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<poem>
घर-घर चूल्हाचौका करती ‚ करती सूट सिलाई माँ
बच्चों खातिर जोड़़ रही है देखो पाईपाई माँ

बाबू जी की आमद भी कम ऊपर से ये महँगाई
टूटे चश्मे से बामुश्किल करती है तुरपाई माँ

टीका‚कुंडल‚हसली‚ कंगन तगड़ी‚नथ‚बिछुए‚चुटकी
बेटी की शादी की खातिर सब गिरवी रख आई माँ

सहतेसहते सारे घर की बढ़ती जिम्मेवारी को
घटतेघटते आज बची है केवल एक तिहाई माँ

सारे रिश्ते झूठे निकले मतलब के थे यार सभी
केवल तूने ही आजीवन निश्छल प्रीत निभाई माँ

पिज्जा‚ बर्गर कब होते थे‚ होते थे पूड़े मीठे
देती थी रोटी पर रख कर शक्कर और मलाई माँ

दर्जन भर लोगों का कुनबा फिर भी था सांझा चूल्हा
मिलजुल कर रहती थीं घर में दादी‚ चाची‚ ताई माँ

घेरा जबजब अवसादों ने अंधियारों में जीवन को
उम्मीदों के दीप जला कर भोर सुहानी लाई माँ

नाम सभी हैं गुड़ से मीठे चाहे मैं जो भी बोलूं
बी जी‚ जननी‚माता‚मम्मी मैया‚अम्मा‚माई‚ माँ

बच्चा ही मकसद होता है माँ के जीवन का ‘अज्ञात'
हिम्मत दे उस के ख्व़ाबों को देती है ऊंचाई माँ
</poem>
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