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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
ख़ुद को तू आईने में नज़रिया बदल के देख
गर हो सके तो जिस्म से बाहर निकल के देख

ख़तरों से खेलने का अगर शौक़ है तुझे
आँखों पे पट्टी बाँध के रस्सी पे चल के देख

दुनिया तुझे बिठाएगी पलकों पे एक दिन
जो भी बुरी है तुझ में वो आदत बदल के देख

मिट कर भी छोड़ जाएगी ये अपनी रंगो-बू
पत्ती हिना की अपनी हथेली पे मल के देख

सबके कहाँ नसीब में होती बुलंदियाँ
ऐ झोपड़ी तू ख़्वाब न ऊँचे महल के देख

हर इक क़दम पे आएंगी दुश्वारियाँ यहाँ
‘अज्ञात’ राहे इश्क़ पे चलना सँभल के देख
</poem>
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