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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
सभी के सामने सज्दा हमें करना नहीं आता
जरा भी झूठ का करना हमें धंधा नहीं आता

नहीं ऐसा कि बेटी का कोई रिश्ता नहीं आता
मगर मैं चाहता जैसा हूँ कुछ वैसा नहीं आता

बहुत नादान हैं वो लोग ऐसा सोचते हैं जो
कि घर में रहने वालों पर कोई ख़तरा नहीं आता

मुझे ख़ारों पे चलने से नहीं तकलीफ़ कोई भी
मगर नाजुक गुलों पर दो क़दम चलना नहीं आता

‘अजय अज्ञात’ उस को तो कभी मंज़िल नहीं मिलती
समय के साथ जिस को भी यहाँ चलना नहीं आता
</poem>
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