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|संग्रह=ज़ियारत / अनु जसरोटिया
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<poem>
ग़ुँचा हँसा न हो, कली दिल की खिली न हो
ये क्या चमन में पत्ता हरा एक भी न हो

उस बाँसुरी से हम को सरोकार कुछ नहीं
वो बाँसुरी जो साँवरे घनश्याम की न हो

दरवाज़ा खोल देने से पहले ये देख लो
दस्तक जो दे रहा है कोई अजनबी न हो

उस दिन की आस में ही जिये जा रहे हैं हम
वो दिन, हमारी जान पे जिस दिन बनी न हो

ज़िद पर तो अड़ गए हो मगर सोच लो ज़रा
जिस बात पर अड़े हो, कहीं खोखली न हो

दिल से निकल रही है, तुम्हारे लिए दुआ
जिस राह पर चले हो, वो काँटों भरी न हो

उस शाख़ के क़रीब भी रुकता नहीं कोई
जो शाख़ फूलों और फलों से लदी न हो

ऐसे नगर में रहना भी किस काम का भला
जिस के क़रीब से नदी बहती कोई न हो

ये रंगो-बू, ये इत्र में डूबी हुई फ़ज़ा
पहुँचे हैं जिस में आ के, वो तेरी गली न हो

जैसा लिखा गया है मुक़द्दर मिरा 'अनु'
क़िस्मत ख़ुदा ने ऐसी किसी की लिखी न हो
</poem>
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