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|संग्रह=ख़ुशनुमा / अनु जसरोटिया
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<poem>
साया भी जहां अपना, शजर छोड़ रहा है
दिल ऐसी हर इक राह-गुज़र छोड़ रहा है

रोई है कोई खिड़की, तो सिसकें हैं दरो-बाम
ये रात गए कौन नगर छोड़ रहा है

तंग आ के शबो- रोज़्ा की बदहाली से
वो धन के लिए गांव का घर छोड़ रहा है

कल तक जो बुज़्ाुर्गों का अदब करता था बच्चा
इस युग में बुज़्ाुर्गों का वो डर छोड़ रहा है

मजबूर हुआ होगा वो क्या जानिए कितना
इक बाप कि बेटे का जो दर छोड़ रहा है

अब वो भी नज़र आते हैं बेचैन से हम को
कुछ अपना असर दीदा-ए-तर छोड़ रहा है

औलाद कहां राह पे नेकी की चलेगी
जब बाप ही नेकी की डगर छोड़ रहा है
</poem>
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