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|संग्रह=ख़ुशनुमा / अनु जसरोटिया
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<poem>
हमें भी शायरी के फ़न पे कु़दरत की तमन्ना है
हमारी शे’र- गोई को भी शुहरत की तमन्ना है

वो मुतशायर जिसे हमसे अदावत की तमन्ना है
उसे कुछ और ज़िल्लत और ज़िल्लत की तमन्ना है

तेरे ही दर पे आयेंगे अक़ीदत है हमें तुझ से
हमारे दिल में तेरी ही ज़ियारत की तमन्ना है

सजा कर फूल थाली में जला कर दीप थाली में
बिठा कर रू-ब-रू माँ को इबादत की तमन्ना है

वो सादा-लोह इन्सां है मना लेंगे उसे फिर से
शरारत का इरादा है शरारत की तमन्ना है

तुम्हें हम जितनी शिद्वत से किया करतें हैं याद अक्सर
तुम्हारे प्यार में भी उतनी शिद्वत की तमन्ना है

करेगा अद्ल भी वो ही करेगा फै़सला वो ही
उसी से आज उस की ही शिकायत की तमन्ना है

कोई ऐ काश इन एहले-सियासत को ये समझाये
जो छल से पाक हो ऐसी सियासत की तमन्ना है

ख़ुदाया हम पे भी मह्रो-करम हो एक दिन तेरा
हमें भी नेक नामी और शुहरत की तमन्ना है

ख़ुदा की ख़ल्क़ की खि़दमत किया करतें हैं जो इन्सां
हमारे दिल में उन लोगों की ख़िदमत की तमन्ना है

कराए हम से जो शे’रो-अदब की ख़िदमतें हर दम
हमें भी ऐसी ताक़त ऐसी फ़ितरत की तमन्ना है
</poem>
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