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Kavita Kosh से
शायद! मैं समझा नहीं था, उनकी पीड़ा
दर्द, ख़ामोशी और जिम्मेदारियों का बीड़ा।
वह बोलें,
एक पिता जब हो जाओगे तो जानोगे?
एक पिता की जिम्मेदारी आखिर क्या-क्या है?
ह्रदय अन्त विभोर हो उठा उनकी बातों में,
मैं बेटा बनकर ही तो सोच रहा था,
किन्तु सारा सच विवश दिखा उनकी आँखों में
मैं,
आखिर सोचता हूँ मैं ही क्यों जंजाल में हूँ?
एक ओर कवि बनना,
मेरा दिन-रात जागकर कविताएं लिखना
जो विवश है, टूटा है, क्या वही कवि हो सकता है?
अपने ह्रदयीहृदयी-खेतों में पिता,
सन्तानों की फसल लहलाते देखना चाहता है?
सांसारिक बाग में एक पिता ही तो बागवां है,
सरकारी नौकरी तो क्या,
सब कुछ कर सकता है।
मैं आखिर ठान के बैठा हूँ
कविताओं में मेरा मन बसा है
और पापा, में जीवन बसा है
उनके बारे में आखिर रोज सोचता हूँ
जैसे दरिया से दरिया मिलकर,
सागर बन सकता है।
बेटा भूमि भी हो सकता है अम्बर भी हो सकता है,
यदि दर्पण हो सकता है तो पत्थर भी हो सकता है।
जब एक चींटी तिनके पर मंजधार में अटकी हो
लेकिन पालकी में बिठाये, श्रवण सैर कराता हो,
तो पालकी मे पिता होता है, बोझ उठाता बेटा
मैं जितना बेटे के पक्ष में हूँ, उतना पिता का पक्षधर भी
यह सृष्टि कभी बेटों की कभी पिताओं की प्रशंसक रही है
बेटों और पिता पे ही तो रामायण, गीता, महाभारत रचीं हैं
जैसे कविता, कवि का सौन्दर्य दर्शाती है
पिता ह्रदय तल है तो तो संताने धडकन हैं
पिता यदि बागवां है तो संताने मधुवन हैं
पिता – बेटे की,