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‘भूख’ / जंगवीर स‍िंंह 'राकेश'

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कमजोर नहीं होते, बेचारे होते हैं।
निकल आते हैं सड़कों पर
बाजारों में, कभी चौराहों पर
पेट के वास्ते दर-दर भटकते हैं
झूठा वरना लगता है अधिकार पालना
धूल, कंकड़, मिट्टी, रोटी सब है मिट्टी
मिलती नही है सही किमत कीमत फिरभी फसल की
तभी तो बेचारे, फाँसी लगाकर,
फंदों में झूले होते हैं, और,
प्यार-व्यार वही करते हैं,
जिनके पेट भरे होते हैं
 
जो सपनों में खोये होते हैं,
लोग वही भूखे होते हैं ।
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