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स्वीकार नहीं करेगी माँ कभी कि
मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़​​ते हुए भी
उसने ईश्वर से ज्यादा मेरे बारे में सोचा

नहीं स्वीकार करेगी कभी
कि मेरे शहर से लौटने तक प्रार्थना में क्यों जुटी रहती थी वह
हर आहट में मेरे मौजूद होने का अहसास क्यों बना रहता था उसके मन में

माँ कभी नहीं मानेगी कि उसने मुझे सागर सा स्नेह. दिया
और आँखों की कोरों में काजल डालकर दुनिया के सारे अपशकुनों से मुक्त रखने की कोशिश में जुटी रही

एक ताबीज़ में बंद रखा सारी बाधाओं को मेरे लिए.!

वह हँस देगी और ना में सिर हिलाएगी
जब मैं कहूँगा-

कि मेरी सारी कविताएँ
तुमसे ही जन्म लेती हैं !

माँ धरती की ओर इशारा करेगी ऐसे में
और अपने अनपढ़ होने का पूरा प्रमाण देगी।

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