{{KKRachna
|रचनाकार=मनमोहन
|अनुवादक=|संग्रह=जिल्लत ज़िल्लत की रोटी / मनमोहन
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<poem>
एक दिन उसने पानी को स्पर्श करना चाहा
एक दिन उसने तब पानी को स्पर्श करना चाहा<br><br>नहीं थात्वचा व्याकुल थी काँटे की तरहउगी हुई पुकारती हुई
तब पानी नहीं यही मुमक़िन था<br>कि वह त्वचा व्याकुल थी काँटे की तरह<br>को स्पर्श से हमेशा के लिएउगी हुई पुकारती हुई<br><br>अलग कर दे
यही मुमक़िन था<br>कि वह त्वचा को तो इस तरह स्पर्श से हमेशा के लिए<br>स्पर्श यानी जल अलग कर दे<br><br>हुआऔर उसकी जगह ख़ाली प्यास रह गई
तो इस तरह स्पर्श से स्पर्श <br>किसी और दिन किसी और समय यानी जल अलग हुआ<br>मोटे काँच के एक सन्दूक मेंऔर उसकी जगह <br>बनावटी पानी बरसता हैजिसे वह लालच से देखता हैख़ाली प्यास रह गई<br><br>लगातार
किसी और दिन किसी और समय <br>मोटे काँच के एक सन्दूक में<br>बनावटी पानी बरसता है<br>जिसे वह लालच से देखता है<br>लगातार <br><br> पानी की कोई स्मृति <br>अब उसके पास नहीं है<br><br> शर्मनाक समय<br/poem><br> कैसा शर्मनाक समय है<br>जीवित मित्र मिलता है<br>तो उससे ज़्यादा उसकी स्मृति<br> उपस्थित रहती है<br><br> और उस स्मृति के प्रति<br>बची खुची कृतज्ञता <br><br> या कभी कोई मिलता है<br>अपने साथ खु़द से लम्बी <br>अपनी आगामी छाया लिए