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|रचनाकार=साग़र सिद्दीकी
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बर्गश्ताबरगश्ता-ए-यज़्दाँ यज़्दान से कुछ भूल हुई हैभटके हुए इन्सान इंसान से कुछ भूल हुई है
ता -हद्द-ए-नज़र शोले ही शोले हैं चमन मेंफूलों के निगेहबान निगहबान से कुछ भूल हुई है
जिस अहद में लुट जाये जाए फ़क़ीरों की कमाई
उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है
हँसते हैं मेरी मिरी सूरत-ए-मफ़्तूँ पे शगूफ़े
मेरे दिल-ए-नादान से कुछ भूल हुई है
हूरों की तलब और मै-मय -साग़र से है नफ़्रतनफ़रत ज़ाहिद तेरे तिरे इरफ़ान से कुछ भूल हुई है
</poem>
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