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याद है..?मुझे नकारते हुएउस दिन अनजाने ही तुमने तुतने खुद अपनी स्वयं की तुलना चाँद से की थी तो सकपका गया था मैं .तुम्हारे अभिमान पर ..! इन भौतिक आँखों से
मुझे नहीं दिख सका था
तुम्हारा गहन आंतरिक विस्तार ..! पर परंतु अब सोचता हूं -सचमुच चाँद जैसी ही तो हो तुम ..!वही चमक ..! वही शीतलता ..! वही धवलता ..! और प्रतिदिन वही बदलता स्वरूप् ..आज खुश होकर चाँदनी बिखेरना , और कल ...बादलों के पीछे छिपकर
अठखेलियां करना
बादल न भी हों
तो भी बडा सहज है तुम्हारे लिये
अपने स्वरूप को बदल लेना
क्योंकि प्रतिदिन बदल कर नया चेहरा बदलने लगा लेने का ऐसा ख़ास हुनर है तुममें जिसे मैं कभी नहीं पा सकता सका..!हाँ....सचमुच...! तुम चाँद ही हो...! अपने हर स्वरूप मेंबस सूरज से थोड़ी सी चमक लेकरअपनी शीतलता का ढिंढोरा पीटने वाला चाँद...! और मैं ...?सूरज हूँ सूरज...!क्योंकि तुम्हारी यातनाओं का सेदहकता हुआ हर दिन नया चेहरान बदल सकने कीविशेष योग्यता से दूरएक गोल सूरज हूं मैं....!!
</poem>{{KKCatKavita}}