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|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
|अनुवादक=
|संग्रह=आसावरी / गोपालदास "नीरज"
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<poem>
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
एक हवा का झोंका जीवन, दो क्षण का मेहमान है
अरे ठहरना कहाँ यहाँ गिरवी हर एक मकान है,
व्यर्थ सुनहरी घूप और यह व्यर्थ रुपहरी चाँदिनी
हर प्रकाश के साथ किसी अँधियारे की पहचान है,
चमकीली चोली-चुनरी पर मत इतरा यूँ साँवरी!
सबको चादर यहाँ एक-सी मिलती चलती बार में!
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
ये गुलाब से गाल इन्हें ऋण देना है पतझार का,
चढ़ती हुई उमर पर पानी है मौसमी फुहार का,
अधरों को यह वंशी जो चुम्बन के गीत सुना रही
होगी कल ख़ामोश उठेगा डोला जब उस पार का,
दर्पण में मुख देख देख मत अपनी छवि यर रीझ यूँ
पड़ती जाती है दरार छिन छिन तन की दीवार में ।
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
श्यामल यमुना से केशों में गंगा करती वास है,
भोगी अंचल की छाया में सिसक रहा संन्यास है,
म्हावर-मेंहदी, काजल-कंघी गर्व तुझे जिन पर बड़ा
मुट्ठी-भर मिट्टी ही केवल इन सबका इतिहास है,
नटखट लट का नाग जिसे तू भाल बिठाए घूमती
अरी! एक दिन तुझको ही डस लेगा भरे बजार में ।
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
कल जिस ठौर खड़ी थी दुनिया आज नहीं उस ढाँव है,
जिस आँगन थी धूप सुबह, उस आँगन में अब छाँव है,
प्रतिपल नूतन जन्म यहाँ पर प्रतिपल नूतन मृत्यु है,
देख आँख मलते-मलते ही बदल गया सब गाँव है,
रूप-नदी-तट तू क्या अपना मुखड़ा मल-मल धो रही
है न दूसरी बार नहाना संभव बहती धार में !
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
जब तक डूबे सूर्य सबेरा ब्याहा जाए शाम से,
तब तक गोरी माथे बिंदिया जड़ ले तू आराम से,
मुंदते ही पलकें सूरज की उठते ही दिन की सभा
सब को फुरसत यहाँ मिलेगी अपने-अपने काम से,
बहक उठा है चाँद और यह महक उठी है चाँदनी
देख प्यार की रितु न बीत जाए इस भरी बहार में!
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
</poem>
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कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
एक हवा का झोंका जीवन, दो क्षण का मेहमान है
अरे ठहरना कहाँ यहाँ गिरवी हर एक मकान है,
व्यर्थ सुनहरी घूप और यह व्यर्थ रुपहरी चाँदिनी
हर प्रकाश के साथ किसी अँधियारे की पहचान है,
चमकीली चोली-चुनरी पर मत इतरा यूँ साँवरी!
सबको चादर यहाँ एक-सी मिलती चलती बार में!
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
ये गुलाब से गाल इन्हें ऋण देना है पतझार का,
चढ़ती हुई उमर पर पानी है मौसमी फुहार का,
अधरों को यह वंशी जो चुम्बन के गीत सुना रही
होगी कल ख़ामोश उठेगा डोला जब उस पार का,
दर्पण में मुख देख देख मत अपनी छवि यर रीझ यूँ
पड़ती जाती है दरार छिन छिन तन की दीवार में ।
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
श्यामल यमुना से केशों में गंगा करती वास है,
भोगी अंचल की छाया में सिसक रहा संन्यास है,
म्हावर-मेंहदी, काजल-कंघी गर्व तुझे जिन पर बड़ा
मुट्ठी-भर मिट्टी ही केवल इन सबका इतिहास है,
नटखट लट का नाग जिसे तू भाल बिठाए घूमती
अरी! एक दिन तुझको ही डस लेगा भरे बजार में ।
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
कल जिस ठौर खड़ी थी दुनिया आज नहीं उस ढाँव है,
जिस आँगन थी धूप सुबह, उस आँगन में अब छाँव है,
प्रतिपल नूतन जन्म यहाँ पर प्रतिपल नूतन मृत्यु है,
देख आँख मलते-मलते ही बदल गया सब गाँव है,
रूप-नदी-तट तू क्या अपना मुखड़ा मल-मल धो रही
है न दूसरी बार नहाना संभव बहती धार में !
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
जब तक डूबे सूर्य सबेरा ब्याहा जाए शाम से,
तब तक गोरी माथे बिंदिया जड़ ले तू आराम से,
मुंदते ही पलकें सूरज की उठते ही दिन की सभा
सब को फुरसत यहाँ मिलेगी अपने-अपने काम से,
बहक उठा है चाँद और यह महक उठी है चाँदनी
देख प्यार की रितु न बीत जाए इस भरी बहार में!
कोई मोती गूँथ सुहागिन ! तू अपने गलहार में
मगर बिदेसी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में!
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