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|रचनाकार=विजयशंकर चतुर्वेदी |अनुवादक=|संग्रह=पृथ्वी के लिए तो रूको / विजयशंकर चतुर्वेदी}}{{KKCatKavita}}<poem>
किताब से उचट रहा है मेरा मन
और नींद में है माँ।माँ ।
पिता तो सो जाते हैं बिस्तर पर गिरते ही,
लेकिन बहुत देर तक उसकुरपुसकुर करती रहती है वह
जैसे कि बहुत भारी हो गई हो उसकी नींद से लंबी रात।लम्बी रात ।
अभी-अभी उसने नींद में ही माँज डाले हैं बर्तन,
फिर बाँध ली हैं मुट्ठियाँ
जैसे बचने की कोशिश कर रही हो किसी प्रहार से।सेमैं देख रहा हूँ उसे असहाय।असहाय !
माँ जब -तब बड़बड़ा उठती है नींद में
जैसे दबी हो अपने ही मलबे के नीचे
और ले रही हो साँस।साँसपकड़ में नहीं आते नींद में बोले उसके शब्द।शब्दलगता है जैसे अपनी माँ से कर रही है कोई शिकायत।शिकायत ।
बीच में ही उठकर वह साफ साफ़ कराने लगती है मेरे दाँतछुड़ाने लगती है पीठ का मैल नल के नीचे बैठकर।बैठकर
कभी कंघी करने लगती है
कभी चमकाती है जूते।जूतेबस्ता तैयार करके नींद में ही छोड़ने चल देती है स्कूल।स्कूल
मैं किताबों में भी देख लेता हूँ उसे
सफों सफ़ों पर चलती रहती है अक्षर बनकरजैसे चलती हैं बुशर्ट के भीतर चीटियाँ।चीटियाँ ।
किताब से बड़ी हो गई है माँ
सावधान करती रहती है मुझे हर रोजरोज़
जैसे कि हर सुबह उसे ही बैठना है इम्तिहान में
उसे ही हल करने हैं तमाम सवाल
और पास होना है अव्वल दर्जे में।में । मेरे फेल फ़ेल होने का नतीजामुझसे बेहतर जानती है माँ।माँ ।</poem>
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