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<poem>
कमी हरपल निकाली जा रही है
मेरी टोपी उछाली जा रही है

चढ़ा है रंग रिश्वत का पुलिस पे
मेरी फाईल खंगाली जा रही है

कहाँ रूपये हैं मुफ़लिस के घरों में
निगोड़ी फिर दिवाली जा रही है

वो सच को ही बयाँ करता रहा पर
उसी की बात टाली जा रही है

भला महफूज़ गंगा क्यूँ रहे ये
इसी में गन्दी नाली जा रही है
</poem>
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