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भीड़ / निर्मला सिंह

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<poem>
मैं सड़क की भीड़ में
एक समूचा
आदमी
न खोज पाई
एक-एक टुकड़ा बीनती रही
फिर भी न जोड़ पाई
पता ही नहीं चला
भीड़ में से आदमी
कब खो गया?
बिखर गया, खिसक गया
मुट्ठी में बंद रेत की तरह
और मुझे बरसों हो गए हैं
मैं उसे खोज रही हूं
कभी नितांत अकेले में
कभी भीड़ में
और हो जाती हूं
पराजित
क्योंकि आदमी
आदमी की भीड़ में है ही नहीं
</poem>
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