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दिनकरकें सुत छी / एस. मनोज

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दीप बनि-बनि जरब
तमकें प्रतिपल हरब
हम त दिनकरकें सुत छी
दिवाकर बनब।

अछि विषमता जतय
दुःखकें कारण बनल
ओतय समता ल झंडा
उठैबे करब।

जनकें परिचय जतय
जाति सँ, धर्म सँ
कर्मवादी व्यवस्था
बनैबे करब।

अछि जे पहरा पड़ैत
कोखि पर घोघ पर
ओ सभ पहराकें हम त
हटैबे करब।

जँ किसानी-मजूरी ल
आफैत पड़त
त हम सत्ता-व्यवस्था
हिलैबै करब।

घून लागल जतय
लोककें तंत्र मे
तंत्र लोकक सुनरका
बनैबे करब।
</poem>
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