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|रचनाकार=राजराजेश्वरी देवी ‘नलिनी’
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शीघ्र सँजो दो स्नेह-सिक्त मृदु प्रेम-प्रदीपावलियाँ।
दीप्ति हो उठे जग, आलोकित हों जीवन की गलियाँ॥
धुल जावे विषाद-तम हो उल्लासों की रँगरँलियाँ।
स्नेहाभा से प्रभान्विता हो खिलें हृदय की कलियाँ॥
अन्तर्गृह में सत्वर शुचितम, स्नेह-प्रदीप सजा
उस स्वर्गिक अभिनव प्रकाश से दिव्यालोक जगा


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