कविता कोश पूरी तरह से अव्यवसायिक परियोजना है। इसमें शामिल रचनाकारों और रचनाओं का चयन कविता कोश टीम द्वारा रचनाओं की गुणवत्ता के आधार पर किया जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति ऐसा कहता है कि वह पैसे लेकर या किसी भी अन्य तरह से इस कोश में रचनाएँ शामिल करवा सकता है तो वह व्यक्ति ग़लत है। यदि कोई व्यक्ति आपसे ऐसी बात कहता है तो कृपया हमें kavitakosh@gmail.com पर सूचित करें।
नहीं उल्लास नहीं यह ब्रह्माण्ड, जो हो रहा प्रसारचीखे़ हैं, हमेशा संशय रहता है दुःख ठीक ही अनिवार अपरम्पारहूँ न
है, अवश्य है कोई ईश्वर कण कण में व्याप्तकितने लोगों को आज सूर्याेदय से अगले साल इसी दिन सूर्योदय तकसखा नहीं, शत्रु अपनी पहचान बदलनी है वह, जानो जो करो शिनाख़्त? फूल कुतरने की मशीनों की रफ़्तार बढ़तीजा रही है। हम मिथक जीते हैं और तय करते हैं कि आज कौन बलिचढ़ रहा है। एक दिन राजकुमार आएगा और राक्षस को मार डालेगा।
युधिष्ठिर, क्यों निर्वाक्, ओ नीतिविशारद,राक्षसों ने लाटरियाँ बन्द कर दी हैं।पीड़ाओं से देख भरा यह संसार लबालबकिसी ने दोलन चक्रों पर काम किया है
हजारों साल बाद कभी पूछूँगा
9002 में क्या हुआ था?
आदमी को सपनों के बाज़ार में ले जाता है जादूगर
आदमी को आज़ादी के सपने बेचता है जादूगर
आदमी की चिन्ता में बार बार कई कई बार लगातार रोता हुआ दिखता है जादूगर
आदमी को आदमी की परम्पराओं में ले जाता है जादूगर
आदमी को आदमी आदमी कहता
आदम को आदमी कहकर चिल्लाता है जादूगर
आदमी जानता है कि सपनों की खरीदारी आज दो और चार का कारोबार है
आदमी जानता है कि राष्ट्रीय झण्डा जिस पर लपेटा गया है वह एक जादूगर की
लाश है
आदमी जानता है कि दुःखों से भरा ब्रह्माण्ड है, दुःखों का समन्दर है,दुःखों का
पहाड़ है
आदमी जानता है कि सब कुछ गड्डमड्ड है, ख़याल गड्डमड्ड हैं, दुःख गड्डमड्ड हैं
आदमी जानता है कि सत्य असत्य है, विश्वास अविश्वास है, युक्ति युक्तिहीन है
आदमी जानता है कि जीवन सूचनाओं के ब्रह्मराक्षस की लीद है
एकमात्र
सत्य
जो सत्य
है
वह
है
भूख
दूर सफेद दीवारों पर चमकती धूप है
हवा के कण परस्पर दूर होते जा रहे
प्रकाश के साथ ताप का एहसास तरंगित हो रहा
ज़मीं से आस्माँ तक धधक रही है फिजाँ
एकमात्र सत्य
वह है भूख है जो सत्य
ज़र जोरू ज़मीन भर नहीं
यह भूख निगलती है खु़द को ही
क्रमशः और और विकराल बनती
कौन कह सकता है कि है उपजी
किस भूख से कौन सी कला
शृंखला कौन सी कौन सी विशृंखला
कैसा धर्म कैसा मर्म
यह ग़रीब की भूख नहीं जो चाहती अन्न गर्म
यह सत्य उस दुनिया का है
जहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं
फिर भी जैसे कुछ भी है नहीं
इस तरह दौड़े आते हैं लोलुप
आँखें अंतड़ियाँ शिश्न योनियाँ
सब कुछ चबा जाने पर भी जो नहीं मिटती
यह सत्य उस भूख का है
यह धरती रहने लायक नहीं है
यह धरती रहने लायक नहीं है
आ हा हा मैं कहाँ खो गया
इतनी बारिश होती रही
बूँदें टिप टिप बदन पर आ आ गिरतीं
और मैं कहाँ खोया रहा
कितनी बातें बूँदों से करनी थीं
यहाँ वहाँ हर जगह जो फल रहीं उलटबाँसियाँ
उनसे एक-एक कर सुननी थीं
मैं जाने कहाँ खो गया
हवाओं में जो चीख़ सुनते हो, वह बहार की गूँज है
बहार आयी है दुःस्वप्नों का बोझ लिए
बहार आयी है ख़बरें लिए कि बहुत सारे लोग हमेशा के लिए धरती से उड़ चुके हैं
अन्तरिक्ष से किस जानिब वे आये थे किस जानिब वे चले गए कौन जानता है
वे मर्द थे या औरत किसको ख़बर है
ढूँढ़ती कि शून्य में किस दरवाजे़ से वह अन्दर आए बहार आई है
अश्कों का बोझ लिए बहार आयी है
शायर के लफ्ज़ लिए कि नई रस्म है वतन में कि सर झुका के चलो बहार आई है
यहाँ कोई नहीं रहेगा सिफ़ वर्दियों के सिवा आर-पार
आदमी को तारों के पार रहना है और मुल्क है कि बँधा है तार-तार
मौत के सौदागरों को मिलते हैं तमगे
कि बहार आएगी तो वे सीना तान कर चलेंगे
बहार आई है दोस्तों, वादियों पर बिछ रही है, हत्यारों के तमगों को छू रही है और
चीख़ रही है
सुनो कितने तमगे हैं कितनी मौतें बहार पूछ रही है
कि कितनी मौतें और होंगी कि तमगों से भर जाएँगे वर्दियों के चप्पे चप्पे बहार पूछ
रही है
सुनो बहार की बद दुआ सुनो कि वर्दियाँ मिट जाएँगी धूल और खू़न की बदबू में
सड़ जाएँगी
रहेगा आदमी फिर फिर मरने को तैयार कि बहार का शृंगार करे कि त्योहार हो हो
नाच गान
हो आज़ादी।
एह शहेला
दुनिया जो पहले से बेहतर है आज
वह शहेला के होने से है
उसके जाने के बाद उतनी बेहतर दुनिया रह गई है
और और शहेलाएँ खिलखिलाती उड़ रही हैं नाच रही हैं
किसको किसको ख़त्म करेगा जादूगर पूछ आओ युधिष्ठिर
मरेंगी और शहेलाएँ चीखे़ होंगी और प्रसारित
यह हमारी सृष्टि की गतिकी है युधिष्ठिर
मरना तो है ही सबको
सजना है कंकालों से काइनात को
भस्म के अथाह जंजालों से
फिर भी आँसू हैं बहते
ऐसे ही आततायियों की गोलियों से भूनी जाओगी बार बार ओ शहेला
कल इशरत कल सोनी पूरी आज शहेला
अनगिनत नाम बन कर आओगी
इतिहास की भैरवी तान ढूँढ़ते
तुमसे टकराते रहेंगे हम
बहार आयी है ख़बरें लिए कि बहुत सारे लोग हमेशा के लिए धरती से उड़ चुके हैं
अन्तरिक्ष से किस जानिब वे आये थे किस जानिब वे चले गए कौन जानता है
वे मर्द थे या औरत किसको ख़बर है
हा हा, सीना फटा जाता है युधिष्ठिर
सीना फटा जाता है...
नहीं उल्लास नहीं, जो हो रहा प्रसार
चीखे़ं हैं, है दुःख ही अपरम्पार
बेटियाँ तारीख़ में तबदील हो गयी हैं।
29 मई: सूरज उस दिन वाक़ई छिपा और अँधेरा वक़्त पर आया। अँधेरे के जाने
की तारीख़ नहीं आती। कोई बतलाता है कि साल गुज़र गया-एक और साल
आने को है। अँधेरे में ढूँढ़ता हूँ नई तारीखे़ं।
अँधेरे में सुनता हूँ जाने कितनी सदियों से चीख़ रही हैं आशिया और नीलोफ़र।
बेटियाँ तारीख़ में तबदील हो गयी हैं।
बेटियाँ बाग़ मंे जा रही हैं। मेहनती जवान बेटियों से मिलने उतर आये हैं रंगीले
अब धरती पर। बेटियाँ बहते नाले में पानी छलकाती हुई नाचती हैं क़दम-क़दम।
सुडौल चेहरों पर आँखें आपस में खेल रहीं हैं अनजाने ख़तरनाक खेल। पलकें उठीं
हुई हैं मतवाली। यौवन से उल्लसित नदी जंगल गाते हैं आने वाली आज़ाद सुबह
के गीत।
अँधेरा उतरता है, अँधेरे ने वर्दियाँ पहनी हुई हैं। अँधेरे के हाथों में बन्दूकंे हैं। अँधेरे
में चीख़ती बेटियाँ हैं।
एक फ़ारेनसिक विशेषज्ञ का कहना है कि वह तारीख़ है जब एक आज़ाद सुबह को
रोकने के लिए बेटियों को चीरफाड़ कर चबा रहे थे जानवर। युधिष्ठिर, कोई बिम्ब
बताओ, कविता को लीक पर लाओ। कुछ गीत सा हो, कुछ प्रगीत सा हो। कुछ
ऐसा कि आलोचक आत्मीय शब्द ढूँढ़ सकंे, कुछ तग़ज़्ज़ल हो, कुछ बात हो, कुछ
बात हो।
चीखें़ बेटियों की गूँजती रहीं पहाड़ों के बीच। बेचती रहीं चट्टानों को।
सदियों से उफन रही तारीख़ की गूँज उमड़ती चली है। जवान लड़कियों को