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19:28, 21 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
बारिश में बहती
नक्षत्रों के बीच
यात्राओं पर चली
मानव की गन्ध।
शहर में शहर की गन्ध है
मानव की गन्ध मशीनें बन
सड़क पर दौड़ती
बचते हम सरक आते
टूटे कूड़ेदानों के पास
वहाँ लेटी वही मानव-गन्ध
मानव-शिशु लेटा है
पटसन की बोरियों पर
गू-मूत के पास सक्रिय उसकी उँगलियाँ
शहर की गन्ध बटोर रहीं
जश्न-ए-आज़ादी से फिंके राष्ट्रध्वज में।
</poem>