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{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
दूर आ चुके हैं हम
खड्डों भरे रास्तों में ठोकरें खाते
अब भी ढूढ़ रहे गन्तव्य
कौन सी दिशा सही है
पूरब जहाँ से सूरज उगता है
या जहाँ रोशनी और ताप से जुदा होते हम
या दिशाओं के बीच हैं सही रास्ते
क्या हैं हम? क्या है जो ले जा रहा है हमें
एक से दूसरी पहचान तक?
इतने सवाल इतने सवाल
फिर भी कितनी आस्था!
कैसे आती समझ कि कोई दूसरा है मुझसे अलग
कि मुझसे नहीं जुड़ा मेरे चारों ओर जो फैला प्राण
कि जो कुछ भी ढो रहा हूँ वह मेरा ही है
वही मेरा है बाक़ी कुछ भी नहीं
क्या हम ही हैं हम?
आईने में देखते हैं बायाँ दायाँ बायाँ
टेढ़ी नाक देख कर आश्वस्त हुए हैं
राहों में रुक-रुक पोखरों में छवि देखी है
सारे शक किए दरकिनार बार-बार कहा खु़द से
हम हैं हम ही
आओ ज्ञान-विज्ञान की बातें करें
राजनीति अर्थनीति की बहस में यह भ्रम ज़िन्दा रखें
कि ज़िन्दा हैं हम
छिपकर कानाफूसी में बाँटें एक दूसरे को नंगा करने की ताज़ा ख़बरें
क्या यह काफ़ी है भूलने के लिए कि अभी भी दिशाएँ छूट रही हैं हमसे
इतनी लम्बी यात्राओं के बाद
रुके हुए हैं एक छोटे से गड्ढे के सामने
थकान इतनी कि गज़ भर की छलाँग भी है भारी
सूखी आँखों में ढूँढ़ रहे आँसू
ढूढ़ रहे एक-दूसरे को हालाँकि दूर नहीं हैं हमारे हाथ
अब भी ढूँढ़ रहे गन्तव्य
भारी सही एक और छलाँग
चलते ही रहें गन्तव्य की ओर।
</poem>
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|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
दूर आ चुके हैं हम
खड्डों भरे रास्तों में ठोकरें खाते
अब भी ढूढ़ रहे गन्तव्य
कौन सी दिशा सही है
पूरब जहाँ से सूरज उगता है
या जहाँ रोशनी और ताप से जुदा होते हम
या दिशाओं के बीच हैं सही रास्ते
क्या हैं हम? क्या है जो ले जा रहा है हमें
एक से दूसरी पहचान तक?
इतने सवाल इतने सवाल
फिर भी कितनी आस्था!
कैसे आती समझ कि कोई दूसरा है मुझसे अलग
कि मुझसे नहीं जुड़ा मेरे चारों ओर जो फैला प्राण
कि जो कुछ भी ढो रहा हूँ वह मेरा ही है
वही मेरा है बाक़ी कुछ भी नहीं
क्या हम ही हैं हम?
आईने में देखते हैं बायाँ दायाँ बायाँ
टेढ़ी नाक देख कर आश्वस्त हुए हैं
राहों में रुक-रुक पोखरों में छवि देखी है
सारे शक किए दरकिनार बार-बार कहा खु़द से
हम हैं हम ही
आओ ज्ञान-विज्ञान की बातें करें
राजनीति अर्थनीति की बहस में यह भ्रम ज़िन्दा रखें
कि ज़िन्दा हैं हम
छिपकर कानाफूसी में बाँटें एक दूसरे को नंगा करने की ताज़ा ख़बरें
क्या यह काफ़ी है भूलने के लिए कि अभी भी दिशाएँ छूट रही हैं हमसे
इतनी लम्बी यात्राओं के बाद
रुके हुए हैं एक छोटे से गड्ढे के सामने
थकान इतनी कि गज़ भर की छलाँग भी है भारी
सूखी आँखों में ढूँढ़ रहे आँसू
ढूढ़ रहे एक-दूसरे को हालाँकि दूर नहीं हैं हमारे हाथ
अब भी ढूँढ़ रहे गन्तव्य
भारी सही एक और छलाँग
चलते ही रहें गन्तव्य की ओर।
</poem>