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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
वैसे सचमुच कौन जानता है कि
दुःख कौन बाँटता है

देवों-दैत्यों के अलावा पीड़ाएँ बाँटने के लिए
कोई और भी है डिपार्टमेंट
ठीक-ठीक हिसाब कर जहाँ हर किसी के लेखे
बटटते हैं आँसू
खारा स्वाद ज़रूरी समझा गया होगा सृष्टि के नियमों में
बाक़ायदा एजेंट तय किए गए होंगे
जिनसे गाहेबगाहे टकराते हैं हम घर बाज़ार
और मिलता है हमें अपने दुःखों का भण्डार।

पेड़ों और हवाओं को भी मिलते हैं दुःख
अपने हिस्से के
जो हमें देते हैं अपने कन्धे
वे पेड़ ही हैं
अपने आँसुओं को हवाओं से साझा कर पोंछते हैं हमारी गीली आँखें
इसलिए डरते हैं हम यह सोचकर कि वह दुनिया कैसी होगी
जहाँ पेड़ न होंगे।

</poem>
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