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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>

बहुत सारी बातें जो थोड़ी देर पहले तक दिमाग में घूम रही थी, जिन्हें
बाँधने की सोच रहा था, अचानक ग़ायब हो गई हैं।

ज़िन्दगी यहाँ तक खींच लाई है तो शिकायत की गुँजाइश भी क्या
यह चेतना की विडम्बना है
चारों ओर दुःखों का महासमुद्र देखते हुए भी हमेशा लगता है इतने दुःख
मेरे हिस्से क्यों
खेल-खेल में कोशिकाएँ खेलती हैं नया खेल
पुराना ख़याल पुराना खेल

ख़याल थोड़ी देर में ही ग़ायब
जेसे अभी मानस में देखा
मुम्बई के मरीन ड्राइव सड़क के पार चर्च गेट के ओर जाते हुए हम चार।
नीला ग्रह घूम रहा है महाकाश में शान्त।
जे गोलक के धरातल पर दिखती है शाश्वत नहीं है ज़मीं।

मैं झुकता हूँ तुम्हारी नाभि पर होंठ रखता हूँ।

अनन्त काल में ज़मीं पर होती क्रिया-प्रक्रियाएँ क्षणभर की अवधि की
हैं। क्षण भर में प्रेम, समर; दुःख और उल्लास।
एक ख़याल यानी स्नायु कोशिकाओं का खेल। दूर से देखो। अनन्त देश
काल में कणों क्षणों की कितनी व्यथाएँ।

क्या फ़र्क़ पड़ता है कि करोड़ों सालों तक रह जाएँ मेरे शब्द
जैसे कल्पनाएँ हैं पदार्थ और ऊर्जा का खेल
वैसे ही खेल हैं गढ़े जड़ शब्द

सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तहों तक अनन्त खेलों में
धड़कता प्रेम! नफ़रत भी।
मैं चुनता हूँ प्रेम। झुकता हूँ तुम्हारी नाभि पर हाेेंठ रखता हूँ।

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