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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
जो दिखता है उससे अलग जो दिखता नहीं
उसे देखना सीखता हूँ कहता हूँ खु़द से
टेलीविज़न उठाकर आलमारी में बन्द कर दिया
इण्टरनेट कनेक्शन काट दिया
पर बची हैं सी डी पर फ़िल्में
और बर्बाद वक़्त करने को बहाना इससे अच्छा क्या

फ़िल्मेें हैं प्रेम परिवार जंग लड़ाई मार
तरह तरह की कथाओं की भरमार
मरे वक़्त की रोटी कमा रहा है कोई
धोखा सही खु़श हूँ मैं कि सामयिक
आतंक से मुक्त हूँ थोड़ी देर के लिए

फ़िल्में हैं कि ख़त्म होती ही हैं
पूरे पूरे संसार ख़त्म हो जाते हैं
सुख दुःख जो मेरे हो चले थे अचानक ही तिलिस्म से
कहीं खो जाते हैं, वापस
बैठता हूँ ख़ुद ही के साथ
फिर से सँजोता हूँ अपने पुराने दुःख
नींद में भी नहीं दिखता जिसे चाहा था देखना
मरहम लेपते हैं अपने ही दुःख।

</poem>
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