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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
ख़याल तड़पाते रहते;
रचता रहता शाश्वत सत्य।
आकारों को मथ सान रचता नए आकार नए जन्तु।

आँखें छलछलातीं, आँसू बहने को;
धीरे से डालियों से उलटा लटकाता खु़द को। उसके बाद कहाँ मेरे रोंएँ,
मेरी उँगलियाँ, मेरे कान, मेरी जीभ, नासिका। पाँच नहीं अनन्त इन्द्रियाँ।
मैं मानव, मनुष्य, आदम, मेरे लिए पिघलता उसका तना। कोंपलें फूटतीं
जहाँ भी मेरा स्पर्श।

</poem>
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