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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
अब वक़्त कम ही बचा है न!
इसलिए दिखता हूँ उतावला
अन्यथा घास का होना बहुत है
उखाड़ कर रस पीना ज़रूरी तो है
पर रुक जाता है उसके पकने तक
सोनचिरैया को पास बुलाने का मन तो है
पर वह न आए और दिखती भर रहे तो काफ़ी है

जानता हूँ जानता हूँ बादल शिकवा करते हैं
कि उन्हेें बरस बरस विलीन हो जाने को कहता हूँ
पर सचमुच रोक नहीं रखता
कदाचित् गम्भीर शक्ल में आगे बढ़ ही जाते हैं।

चिन्ता मत करो
मेरा उतावलापन तुम्हें हर किसी में दिखेगा
तुम ही तो खींच रही मुझे अपनी गमक से
और मेरे पास वक़्त इतना ही है।

</poem>
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