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<poem>
ख़ालीपन आ बैठा पास
जब पिघल गये
प्रेम में सब अर्थ,
रंग इतने हुए
कि बचा नहीं रंग
बस एक गहरापन पास रहा,
हम वहीं से हुए आरंभ
जहाँ थे रंगों में

रंगों की एक सत्ता थी
जैसे होती है मन की
जैसे शब्दों की होती है,
वे डाल देते हैं आदत अपनी
और हम
मुश्किल में पड़ जाते हैं,
तब छूटते नहीं रंग
और उनके आकार,
वे दिनोदिन होते जाते हैं पक्के
हम दिल पर ले लेते हैं पक्का रंग
एक ख़ास जगह देते हुए,
सिर चढ़कर बोलते रंग तब
हमें मुक्त करते हैं,
वे जिस तरह से होते हैं चित्रों में
उनके कहने को रंगों में सुनता कवि
मुक्त होता है शब्दों में।

वृत्त तब भर जाता मन का तमशून्य
उस वैभव का
धरती जल अग्नि वायु
और अनगिन आकाश भरा।

</poem>
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