भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<poem>
ईषत् चालित नयनों का इंगितमय तुझे लगा लूँ वह स्पंदन उर से आलिंगन हो इस वन में फिर सुधा-वृष्टि कर मन पुर में जगा रहा है मस्ती भर दे इस तन में ।।१५१।।करुणा का भारी क्रंदन ।।१४६।।
चाहे जितनी मादकता चंचले! चपल चपला -सी लेनी हो, ले चमको इस जन से नीलाम्बर में क्यों हाय,अकिंचन कहकर चिर सघन पयोद हटाकर तू बिछुड़ चली आ जा जीवन से ।।१५२।।"- संगर में ।।१४७।।
जा जल्दी चली ओ पावनि !मेरा संदेश सुनाने शरदेन्दु सान्द्र - सी चमको मेरी दरिद्र बुझती ज्वाला को धरणी पर कलरव से अब गा दो ना आ जाना पुनः जगाने ।।१५३।।अपनी प्रतीप करणी पर ।।१४८।।
मैं तेरी प्रत्याशा शतदल के विकच वनों में बैठा निर्झर - के बैठा रोऊँगासुखद स्वरों में हाँ, आना, देर न करना खोजूँगा चिह्न तुम्हारा भूलना तारों के मैं नील सोऊँगा ।।१५४।।घरों में ।।१४९।।
वृन्तों भ्रमरी की मृदु गूँजों में फूल खिले हैं सलिलों फूलों की मृदु लाली में कमल थिरकते इस चंद्रमुखी खोजूँगा रजनी के चिह्न तुम्हारा घन - घूँघट आज सरकते ।।१५५।।फसलों की हरियाली में ।।१५०।।
</poem>