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ओ दर्पण / ओम नीरव

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मेरा इतना भोड़ा चेहरा!
नहीं, नहीं, तुम ही झूठे हो!
ओ दर्पण तुम ही झूठे हो!

माना पाँव पड़े कीचड़ में, छींटे चेहरे पर भी आये,
किन्तु न लाए पास तुम्हारे, कभी बिना धोये चमकाये l
फिरभी तुमने छाप दिये हैं, दाग सभी वैसे के वैसे,
कोई भी जो देख न पाया, वह तुमने ही देखा कैसे?
नहीं नहीं तुम ही झूठे हो l
बोलो बोलो मेरे दर्पण
आखिर क्यों मुझसे रूठे हो?
ओ दर्पण तुम ही झूठे हो!

माना कुछ अनुचित करता हूँ, पर रातों में आँख बचाकर,
सीना तान चला करता हूँ, दिन में सबसे आँख मिलाकर l
फिर भी कर दीं नीची आँखें, मेरा भोड़ा बिम्ब बनाकर,
आँखें नहीं उठा पाता हूँ, दर्पण पास तुम्हारे आकर l
नहीं नहीं तुम ही झूठे हो l
सदा अप्रिय ही बोला करते
बड़े सत्यवादी नूठे हो!
ओ दर्पण तुम ही झूठे हो!
मेरा इतना भोड़ा चेहरा!
नहीं नहीं तुम ही झूठे हो!
ओ दर्पण तुम ही झूठे हो!
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