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<poem>
कंचनमृग के लिए अहेरी
यहां रच रहे सौ-सौ ब्यूह।

उतर पड़ा परती खेतों में
कोई मौसम अनजाना
देख भूख का गुमसुम चेहरा
मौन हुआ दाना-दाना
उगते-उगते फसल अर्थ की
शब्द हो गए बहुत दुरूह।

ये बीमार अपाहिज सुबहें
ये अन्धी-अन्धी शामें
आ न जाएं दरवाजे पर
टूटी बैशाखी थामें
अंतरिक्ष में लटके-लटके
संबोधन के थके समूह।

सुनते-सुनते खोटी-खोटी
कहते-कहते खरी-खरी
कटे हाथ में चक्र सुदर्शन
लिए-हुए रोशनी भरी
किसी संझौखे की तलाश में
दर-दर भटक रही है रूह।
</poem>
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