भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब कहलको हे / रामकृष्ण

24 bytes removed, 07:11, 3 मार्च 2019
{{KKCatMagahiRachna}}
<poem>
तोर चुप्पी अनोर हो गेलोकुछ न कहके उ सब कहलको हे,रात करिआ से गोर हो गेलोलोर में भींज सब सहलको हे॥का हूँआँख तऽ, गोर मन के भरम पाल-पोस के अप्पनदरपन हौ,एगो लत्तर इयाद साँस बन नेह के सरेख कइली हल।समरपन हौ।साज तोर किरिआ लहस के, सुरके न, कनहूँ से राग सपना के असरा,तोरे आँगछ से अन्हरिओ इंजोर हो गेलो॥सब दिरिस आस में सँवारलो हे॥ओठ साँझ से बात जब छलक जैतो तब कहिह,भोर तक उदास निअनगीत हिरदा में जब धमक जैतो फूल अनमिझाएल एगो पिआस निअनगन्ह सोझ मन के छाँह से सिरजल सिनेह इ बात हिरनी के छँहरीजेठ मेह के लूकछाँह बन उतरलो हे॥झाँझ-पहर जुड़-झकोर हो गेलो॥गुदगुदी मन गोड़ाँव के भरम खोल सबके कह देतोदरद,हमरातोर मातल मुठान से अइसन लग रहलो।सब कहलको हे इ सरद हमरा।अब, बहाना बना गन्ह सन् पाँव पर कि पिपनी परअंगे-अँगे खिलखिला पसरलो हे॥ई अँधरिया के मत जिआन बेर करऽ।पार जाएलातोर अँचरा में सात सुर फिन उतार लावेलाएगो असरे हमर मन के भोर हो गेलो॥सभे जिनगीआप सूखे एने सरसलो हे॥</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader, प्रबंधक
35,132
edits