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कुछ शेर-दोहे / कुमार मुकुल

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जो नहीं है वो ही शै बारहा क्यों है
किसी की यादों को भला मेरा पता क्यों है​।​

खताएं उम्र भर मुझसे होती रहीं
माफीनामे लिखके पर आजिज ना हुआ।

बारहा भरे बाज़ार मेरे मैं को उछालेगी
ये बेचैनी मुझे फिर फिर बदल डालेगी​।​

हद ए दर्द​ ​अब बयाँ नहीं होता
होने को ​ ​क्या नहीं होता...​।​

कोई यूं भी घर करता है
कि जैसे बे-घर करता है​।​

तेरी किस बात के मानी क्या ​हैं​
ये समझने में उम्र गंवा दी मैंने​।​

वो जो रंग मिटाये हमने
अब दाग़-दाग़ जलते हैं​।​

तू तो बदल गई जो​,​ तस्वीर ना बदलना
नजरों की मेरी जानिब तासीर न बदलना।

पत्थरदिली तुम्हारी कर देती दफ़्न कब का
निगाहे करम तुम्हारा गर पासबाँ न होता​।​

राह उसने न कोई छोड़ी है
यादों की रहगुजर के सिवा​।​

उसकी खुशनिगाही के हैं सभी कायल
उसके मोती मैने भीतर सजा के रखे हैं​।​

लरजता देखता था लहरों पर
तेरी आवाज अब नहीं आती।

अलविदा'अ तो ठीक है पर जो रोने का मन करे
लौट आना सबकुछ भूलके जैसे कुछ हुआ न हो।
</poem>
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