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चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी !गति के पागलपन से प्रेरित चलती रहती संसृति महान;सागर पर चलते हैं जहाज , अंबर पर चलते वायुयान .भूतल के कोने-कोने में रेलों-ट्रामों का जाल बिछा ,हैं दौड़ रही मोटर-बसें लेकर मानव का वृहत ज्ञान !पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं उच्छ्वास,भावनाएँ चाहे ,वे भूखे अधखाये किसान, भर रहे जहाँ सूनी आहें .नंगे बच्चे, चिथरे पहने, माताएँ जर्जर डोल रही ,है जहाँ विवशता नृत्य कर रही,धूल उड़ाती हैं राहें!बीते युग की परछाहीं सी,बीते युग का इतिहास लिये,'कल'के उन तंद्रिल सपनों में 'अब'का निर्दय उपहास लिये,गति में किन सदियों की जड़ता,मन में किस स्थिरता की ममता अपनी जर्जर सी छाती में, अपना जर्जर विश्वास लिये ! भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,कँप-कँप उठते जिसके स्तर-स्तर हिलती-डुलती,हँफती-कंपती,कुछ रुक-रुककर,कुछ सिहर-सिहर ,चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी !
उस ओर क्षितिज गति के कुछ आगे, कुल पाँच कोस की दूरी परपागलपन से प्रेरित चलती रहती संसृति महान,भू की छाती सागर पर फोड़ों-से चलते हैंजहाज़ , उठे हुए कुछ कच्चे घर !मैं कहता हूँ खंडहर उसको, अम्बर पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,चलते वायुयान .पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ, नारियाँ जन रहीं हैं गुलाम ,पैदा होना फिर मर जाना,बस यह लोगों का एक काम !था वहीं कटा दो दिन पहले गेंहूँ का छोटा एक खेत !तुम सुख-सुषमा भूतल के लाल, तुम्हारा है विशाल वैभव कोने-विवेक,तुमने देखी है मान-भरी उच्छृंखल सुन्दरियाँ अनेक ,तुम भरे-पुरे,तुम हृष्ट-पुष्ट ,ओ तुम समर्थ कर्ता-हर्ता,तुमने देखा है क्या बोलो ,हिलता-डुलता कंकाल एक ?वह था उसका ही खेत,जिसे उसने उन पिछले चार माह,अपने शोणित को सुखा-सुखा,भर-भरकर अपनी विवश आह,तैयार किया था और घर कोने में थी रही रुग्ण पत्नी कराह !उसके वे बच्चे तीन, जिन्हें माँरेलों-बाप ट्रामों का मिला प्यार न थाजाल बिछा ,थे क्षुधाग्रस्त बिलबिला रहे मानों वे मोरी के कीड़े ,वे निपट घिनौने, महापतित, बौने, कुरूप टेढ़ेहैं दौड़ रही मोटर-मेढे !बसें उसका कुटुंब था भरा-पुरा आहों से, हाहाकारों से ,फाको से लड़-लड़कर प्रतिदिन घुट-घुटकर अत्याचारों से .तैयार किया था उसने ही अपना छोटा-सा एक खेत !बीबी बच्चों से छीन, बीन दाना-दाना, अपने में भर,भूखे तड़पें या मरें, भरों लेकर मानव का तो भरना है उसको घर , धन की दानवता से पीड़ित कुछ फटा हुआ,कुछ कर्कश स्वर ,चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी वृहत ज्ञान !
पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं उच्छ्वास, भावनाएँ चाहें ,वे भूखे अधखाए किसान, भर रहे जहाँ सूनी आहें .नंगे बच्चे, चिथड़े पहने, माताएँ जर्जर डोल रहीं ,है जहाँ विवशता नृत्य कर रही,धूल उड़ाती हैं राहें ! बीते युग की परछाईं-सी,बीते युग का इतिहास लिए,'कल' के उन तन्द्रिल सपनों में 'अब' का निर्दय उपहास लिए,गति में किन सदियों की जड़ता,मन में किस स्थिरता की ममता अपनी जर्जर सी छाती में, अपना जर्जर विश्वास लिए ! भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,कँप-कँप उठते जिसके स्तर-स्तर हिलती-डुलती, हँफती-कँपती,कुछ रुक-रुककर, कुछ सिहर-सिहर, चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी ! उस ओर क्षितिज के कुछ आगे, कुल पाँच कोस की दूरी पर,भू की छाती पर फोड़ों-से हैं, उठे हुए कुछ कच्चे घर !मैं कहता हूँ खण्डहर उसको, पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ, नारियाँ जन रहीं हैं ग़ुलाम,पैदा होना फिर मर जाना,बस, यह लोगों का एक काम !था वहीं कटा दो दिन पहले गेंहूँ का छोटा एक खेत !तुम सुख-सुषमा के लाल, तुम्हारा है विशाल वैभव-विवेक,तुमने देखी है मान-भरी उच्छृंखल सुन्दरियाँ अनेक,तुम भरे-पुरे, तुम हृष्ट-पुष्ट,ओ तुम समर्थ कर्ता-हर्ता,तुमने देखा है क्या बोलो,हिलता-डुलता कंकाल एक ?वह था उसका ही खेत,जिसे उसने उन पिछले चार माह,अपने शोणित को सुखा-सुखा,भर-भरकर अपनी विवश आह,तैयार किया था और घर में थी रही रुग्ण पत्नी कराह ! उसके वे बच्चे तीन, जिन्हें माँ-बाप का मिला प्यार न था,थे क्षुधाग्रस्त बिलबिला रहे मानों वे मोरी के कीड़े ,वे निपट घिनौने, महापतित, बौने, कुरूप टेढ़े-मेढ़े !उसका कुटुम्ब था भरा-पूरा आहों से, हाहाकारों से ,फाको से लड़-लड़कर प्रतिदिन घुट-घुटकर अत्याचारों से .तैयार किया था उसने ही अपना छोटा-सा एक खेत !बीबी बच्चों से छीन, बीन दाना-दाना, अपने में भर,भूखे तड़पें या मरें, भरों का तो भरना है उसको घर , धन की दानवता से पीड़ित कुछ फटा हुआ,कुछ कर्कश स्वर , चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी ! है बीस कोस पर एक नगर,उस एक नगर में एक हाट,जिसमें मानव की दानवता फैलाये फैलाए है निज राज-पाट;साहूकारों का भेष धरे है जहाँ चोर औ' गिरहकाट,है अभिशापों से घिरा जहाँ पशुता का कलुषित ठाट-बाट.चांदी चान्दी के टुकड़ों को लेने,प्रतिदिन पिसकर,भूखों मरकर ,भैंसागाड़ी पर लदा हुआ, जा रहा चला मानव जर्जर,है उसे चुकाना सूद,कर्ज कर्ज़ है उसे चुकाना अपना कर,जितना खाली ख़ाली है उसका घर उतना खाली ख़ाली उसका अंतर .अन्तरऔ' कठिन भूख की जलन लिये लिए नर बैठा है बनकर पत्थर,पीछे है पशुता का खंडहर खण्डहर, दानवता का सामने नगर , मानवता का कृश कँकाल लिए चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी !
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