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लफ़्ज़ वारिद हुआ
परवरिश पाता रहा जिस्म की गहराइयों में
और परवाज़ भरी होंटों से और मुँह से निकल
पुरखों दर पुरखों भी और नस्लों की मीरास के साथ
और वह बस्तियाँ जो पहने थी पत्थर के लिबास
थक चुकी थीं जो खुद ख़ुद अपने ही बाशिंदों बाशिन्दों से दबी क्योंकि जब दर्द ने सडकों सड़कों को छुआ और बढ़ा
लोग आते भी गए दूर कहीं जाते भी
बीज लफ़्ज़ों के दुबारा कहीं बोने के लिए
और यही वजह है मीरास हमारी है यह
वही झोके हैं हवाओं के कि जोड़ें हमको
दफ़न इन्सानों इनसानों से रिश्तों ने पिरोयें पिरोएँ हमको
और वह सुबह नई सुबह का पैग़ाम नया
जो कि बेताब है मंज़र पे कभी आने को
आज भी काँपती है सारी फ़िज़ा
गूँज से लफ़्ज़ की जो पहले पहल बोला गया
घोर अंधियारों अन्धियारों में ड़र डर और किसी आह के साथ लफ़्ज़ उभरा तो सही पर कहीं गर्जा गरजा न कोई और फिर आहनी झंकार -सी बहती ही रही
उसी एक लफ़्ज़ की
जो पहले पहल बोला गया
वक़्त गुज़रा तो फिर इस लफ़्ज़ में मानी उभरे
कोई बच्चा था जो जीवन को सजाने आया
तमाम खल्क़ ख़ल्क़ महज़ जन्म थी और थी आवाज़
इत्तेफ़ाक़ , साफ़ और मज़बूती लिए
साथ इनकार लिए
और तबाही का,कभी मौत का पैग़ाम लिए सारी ताक़त सिमट के घुल गयी गई क्रियाओं में
बिजलियाँ भर गईं रौनक़, जो मिले दो पहलू
ज़िन्दगानी का वजूद और उसके साथ की ख़ुशबू
रौशनी फैल गई और सजावट से धजी चाँदी से
उसके कोनों थे हर्फ़ और जो अल्फ़ाज़ थे इन्सानों इनसानों के
और विरासत का था जो जाम वह छलका ऐसे
यह वह लम्हा था कि ख़ामोशी का दामन फैला
सफ़र पूरा हुआ इंसान इनसान के लफ़्ज़ों में समा मौत का ज़िक्र ही क्या, इंसान इनसान का पूरा ही वजूद
भाषा विस्तार ले तो बालों में उगती है जुबाँ
होंट हिलते भी नहीं मुंह मुँह से निकलते हैं लफ्ज़
घुल गया सारा वजूद लफ़्ज़ में इंसानों इनसानों के
यक-ब-यक नज़रें ही बन जाती हैं लफ्ज़
लफ़्ज़ों को लेता हूँ और नफ्स में भर लेता हूँ
ऐसा लगता है कि यह लफ़्ज़ नहीं इंसाँ इनसाँ हैं
लफ़्ज़ों के लय में उतरता हूँ तो खो जाता हूँ
इनकी तरतीब मुझे डालती है हैरत में
बुदबुदाता हूँ कि जिंदा ज़िन्दा हूँ अभी
और हैरत में हूँ कुछ बोल नहीं पाता हूँ ।
और धीरे से क़दम अपने बढाता बढ़ाता हूँ उधर
ख़ामोशी लफ़्ज़ों की छाई है जिधर
जाम उठाता हूँ मैं लफ़्ज़ों के लिए
लफ़्ज़ एक या कि दमकता शीशा
जिसमे मैं ढ़ालता ढालता हूँ जाम अपना
जाम यह भाषा की खालिस मय है
कोई बहता हुआ पानी जो ठहरता ही नहीं
लफ़्ज़ के जन्म का की वजह है यह
जाम और पानी और खालिस यह शराब
मेरे नग़मों को बुलंदी बुलन्दी-सी अता करते हैं क्रिया है लफ़्ज़ों की जां जाँ और ज़रिया वाहिद जिंदगी ज़िन्दगी बन के मेरे खूं खूँ में उतर जाती है खून ख़ून जो लफ़्ज़ों के मानी को बयां बयाँ करता है खुद को फैलाव का पैगाम पैग़ाम दिया करता है लफ़्ज़ शीशे को ज़िया देते हैं और खून ख़ून को खून ख़ून
और जीवन को भी यह जीवन ही अता करते हैं ।
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