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|रचनाकार=रुडयार्ड किपलिंग
|अनुवादक=तरुण त्रिपाठी
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<poem>
हम तन्हा थे इस समुद्रतट पर
गर्मी की इन लहरों से भेंटते हुए
देखते हुए इस तट पर वे लहरें
देखते हुए इस समंदर पर वो चाँद

शब्द नहीं थे बहुत, मेरे ख़याल से;
और हम चाहते भी क्यों उन्हें?
दो दिल, और दरमियाँ कुछ भी नहीं
गर्मी की इन लहरों से भेंटते हुए

ख़ामोशी! ऐसी ख़ामोशी ही आवाज़ है
वह, मेरी बाँह में डाले अपनी बाँह,
चलती हुई चाँदनी तट पर
बना देती है इसे कोई दैवीय समागम

दुनिया की आवाज़ आसपास?
तेज़ आवाज़ हो रही है कुछ तटबंध पर?
हमने नहीं सुनी कोई आवाज़
और फिर भी तुम कहती हो कि वे थे पास!

अच्छा, हमें एक बार फिर जाना होगा वहाँ,
सुनने उन्हें उनकी क्रीड़ा करते हुए, तुम और मैं
देखो! दिन का प्रताप ख़त्म हो गया है
कल तक के लिये, अलविदा.

</poem>