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|संग्रह=शाम सुहानी / रंजना वर्मा
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<poem>
रुत ने करवट बदली गूँजी छम-छम पायल की
झाँक रही है साँझ ओट ले झीने बादल की

घूँघट सरका कर सन्ध्या का रजनी झाँक रही
धुले धुले मुखड़े पर जैसे रेखा काजल की

झील किनारे खिले कास ने जब आँखें खोलीं
पवन उड़ाने लगा चुनरिया झीनी मलमल की

बहुत तपाया सूरज ने तब आयी ये बरखा
भीग उठी हो नयन कोर ज्यों काले बादल की

छलकी गागर घन बाला के शीश धरी है जो
एके बूँद आ गिरी गाल पर फिर निर्मल जल की

</poem>