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|संग्रह=शाम सुहानी / रंजना वर्मा
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<poem>
फिर कोई भूला हुआ गीत सुना हो जैसे
आँख में आ के कोई अश्क़ रुका हो जैसे

आज इक जादुई नगरी-सी निगाहों में तिरी
इन निगाहों ने कोई ख़्वाब बुना हो जैसे

आ ज़रा डाल दे इन आँखों में आँखें अपनी
दर्दे जज़्बात ये आँखों से बहा हो जैसे

वस्ल को मेरे नज़र है लगी जाने किसकी
मेरी तकदीर में बस हिज्र लिखा हो जैसे

जिंदगी बन गयी अफ़साने के मानिंद मगर
इस फ़साने को किसी ने न कहा हो जैसे

</poem>